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सनातनी होकर भी अगर राम के गुणों को नहीं जान पाए तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा – माँ दीदी मंदाकिनी

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रायपुर। हमारे लिए गौरव का इससे बड़ा विषय और क्या हो सकता है कि श्रीरामचरित मानस अब वैश्विक विधि हो गई है। जब यूनेसको ने इसे स्वीकार कर लिया है। हम भारतीय सनातनी होकर भी अगर राम के गुणों को नहीं जान पाए तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा, क्योंकि कई ग्रंथों और साहित्यों में उनके बारे में बताया गया है। गोस्वामी तुलसीदास जी तो 500 वर्ष पूर्व लिखकर देवगमन हो गए लेकिन उन्होंने जाने से पहले हमें यह अमृत कलश सौंप गए है। श्रृंगाररस को गोस्वामी जी ने समाप्त नहीं किया बल्कि भगवान श्रीराम और सीता के मिलन को चुना। इस दौरान उन्होंने विदेह की भूमिका को चुना। विदेह में श्रृंगार सुनकर आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे क्योंकि विश्व का साहित्य पढ़ लीजिए उसमें कहीं पर भी विदेह में श्रृंगार का जिक्र नहीं है। गोस्वामी जी कहते है विदेह में श्रृंगार तब आती है जब वह देह से जुड़ जाए लेकिन इससे बढ़कर उन्होंने देह में श्रृंगार नहीं बल्कि उसमें सूक्ष्म का उत्तमरुप जोड़ दिया। जितना सुगमता से व्यक्ति सूक्ष्मता में प्रवेश करता है और अंतर में जो सबसे छोटा परमाणु होता है जिससे यह सारी सृष्टि बनी हुई है वह सबसे अधिक शक्तिशाली माना जाता है। जिस भूमि में प्रवेश करके ब्रम्ह के अंदर रस का संचार हुआ जहां ब्रम्ह के हृदय में काम का अवतरण हुआ है।

सिंधुभवन शंकर नगर में श्रीराम कथा में दीदी मां मंदाकिनी ने पुष्प वाटिक प्रसंग पर बताया कि विदेह वाटिका का आनंद आप तब ले सकते है जब वह देह वाटिका की पृष्ठभूमि हो। जनक की वाटिका का उल्लेख गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में जानबूझकर नहीं लिखा है और नहीं लिखकर उन्होंने संदेश दे दिया जिसे महाराजश्री ही समझ पाए। नाम और रुप दोनों देह से तो जुड़े हुए है, जब शरीर है तो उस देह का नाम और रुप होता है लेकिन यहां तो विदेह है तो विदेह में नाम कैसे हो सकता है इसलिए जनक की वाटिका विदेह है इसलिए उसका नाम नहीं लिखा। हमें नित्यप्रतिदिन रामचरित मानस का पांच दोहा जरुर पढऩा चाहिए क्योंकि जब तक हम मानस के कथानक से अवगत नहीं होंगे तब तक हम नहीं जान पाएंगे क्योंकि यह पारंपरिक कथा नहीं है। पुष्प वाटिका प्रसंग के प्रमुख रुप से दो पक्ष है। एक पक्ष है भक्ति और दूसरा पक्ष है साधना। प्रमुख रुप से ये दो सिद्धांतों का पक्ष गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया है। भक्ति और साधना दोनों ही स्त्रीलिंग है। भक्ति का पक्ष क्या है – भक्ति की अंतिम परिणीति क्या है? और वह है भगवान से मिलन। दूसरी ओर साधक जो अपने साधन मार्ग के द्वारा अध्यात्मिक सोच उसके पावन जीवन में आते है उसकी पराकाष्ठा क्या है उसका दूसरा पक्ष यहां सशक्त रुप से गोस्वामी तुलसीदास जी ने प्रस्तुत किया है। माता सीता जी भक्ति स्वरुपा है। यहां प्रश्न यह उठता है कि भक्तों को कैसा भगवान अभिष्टि है और यहां जितने भी लोग कथा श्रवण करने आए है वह सभी भगवान को पाना चाहते है और इस जन्म में नहीं तो उस जन्म में आपको दर्शन जरुर देंगे। अगर नहीं दिए तो मरने के बाद आपको उनके दर्शन जरुर होंगे। ब्रम्ह निरगुण, निरिह, निराकार है और निष्पक्ष है। भक्तों को निष्पक्ष ब्रम्ह नहीं चाहिए।

सनातनी होकर भी अगर राम के गुणों को नहीं जान पाए तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा - माँ दीदी मंदाकिनी

उदाहरण देते हुए दीदी माँ ने कहा कि जब किशोरीजी अपनी सखियों के साथ पुष्प वाटिका में प्रभु को खोज रही है क्योंकि उन्हें सूचना मिली थी कि दो राजकुमार आए हुए है और वे बाग वाटिका में प्रवेश करती है और चारों तरफ उन्हें खोज रही थी। अचानक भावनामयी एक सखी को दिखाई दी क्योंकि वहां पर लता कुंज बना हुआ था और उस कुंज से जो प्रकाश निकल रहा है वहां पर श्री राघव की झलक मिलती है लेकिन वह स्पष्ट दिखाई नहीं देते है। तब किशोरीजी का वह सखी प्रभु के श्रृंगार का ध्यान आकृष्ट करती है और कहती है मोर पंख सिहोवत सिखे.साधारण लोग जब मानस का पाठ और व्याख्या करते है तो कहते है कि यह भगवान श्रीराम के बहिरंग श्रृंगार का वर्णन है। काव्य में है श्रृंगार और श्रृंगार में है संदेश। जब भगवान राम अयोध्या में थे तो वह पक्षियों के साथ खेला करते थे लेकिन पुष्प वाटिका में आते है तो मोर पक्ष धारण क्यों कर लेते है क्योंक पक्षधर तो यहां मिथिला की भूमि में आकर ही मिलती है। अब प्रश्न उठता है कि प्रभु ने माथे में ये मोर का पीछा क्यों बांधा? क्योंकि श्याम की लीला में वे मोर पक्षधारी है पर श्रीराम की लीला में पहली बार पुष्प वाटिका में मोर पक्ष धारण किए हुए है। संसारिक व्यक्ति यह सोचने लगे कि मोर पक्ष शब्द लेख शीर्षक है, पक्षी का नाम भी मोर है क्योंकि बहिरंग रुप से उसका शरीर बेढोल है, उसकी वाणी काया वचन, वह भोजन में सांप को खाता है तो उसका चित कितना कठोर होगा इसकी कल्पना कर लीजिए। गोस्वामी जी कहते है कि इसका नाम पहले मोर था ही नहीं,क्योंकि वह ऐसा विचित्र पक्षी था। जब भगवान श्रीराम ने उनका पक्ष धारण कर दिया तबसे उसको सब अपनाना शुरु करते हुए मोर-मोर कहने लगे और अब तो छत्तीसगढ़ मेंं भी जो मोर छत्तीसगढ़ लिखने लगे है। मोर का मतलब मेरे, मेरा होता है क्योंकि मेरा किसको कहेंगे जो आपको अतिप्रिय लगे। मोर बांधकर प्रभु मोर पक्षधारी हो गए। पुष्प वाटिका में पांच पक्षी थे।

सनातनी होकर भी अगर राम के गुणों को नहीं जान पाए तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा - माँ दीदी मंदाकिनी
प्रभु के स्वागत में सारे पक्षी गायन करने लगे लेकिन जब मोर ने प्रभु को देखा तो वह आनंदित होकर ऐसा नाचने लगा कि वह अपना सब कुछ भूल गया और नाचते-नाचते एक पंख गिर गया। उसी पंख को लक्ष्मण जी ने उठा लिया और भगवान के सिर पर लगा दिया। प्रभु इसलिए उसका पक्ष लेते है जो अपना पक्ष छोड़ देता है और जो अपने पक्ष का त्याग कर सकें। प्रभु ने जातक का पंख क्यों नहीं बांधा अपने माथे पर, किर या किल का भी बांध सकते थे, चकोर का भी बांध सकते थे, लेकिन उन्होंने किसी का पक्ष ग्रहण नहीं किया। इसलिए प्रभु कहते है कि अगर तुम अपना-अपना पक्ष पकड़े रहोंगे तो हमें कोई भी आपत्ति नहीं है और हमें तुम्हारी कोई जरुरत नहीं है। जो अपना पक्ष त्याग करके, इसका मतलब यह है कि जो पूरी तरह से समर्पित और शरणागत हो जाता है प्रभु उसका पक्ष लेते है। यह एक छोटे से शब्द पक्षधर से मंथन करके हमें यह दिव्य रत्न दिया है।

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