विस्थापित हो रही परंपराओंं की स्थापना के लिए होती हैं कथाएं – मैथिलीशरण
रायपुर। कथा का आयोजन कोई परंपरा नहीं है, यदि कोई कथाओं का आयोजन निरंतर कर रहा है तो यह नहीं मानना चाहिए कि वह परंपरा का निर्वहन कर रहा है। वास्तव में समाज से विस्थापित हो रही परंपराओं की स्थापना के लिए कथाएं की जाती है। महाराजश्री रामकिंकर जी के परम शिष्य मैथिलीशरण भाईजी ने गुरुवार को पत्रकारों के साथ चर्चा करते हुए उक्त आशय के विचार व्यक्त किए।
भाईजी ने कहा कि वर्तमान दौर में चारों ओर नारी स्वतंत्रता का नारा मुखर हो गया है, स्वतंत्रता होनी चाहिए लेकिन स्वतंत्रता की बहाली के लिए परतंत्रता की स्थापना भी उतनी ही जरुरी है, क्योंकि परतंत्रता के बगैर स्वतंत्रता नहीं मिल सकती। इस स्वतंत्रता में मर्यादा का होना भी जरुरी है फिर चाहे वह विधायिका हो, कार्यपालिका, न्याय पालिका, परिवार, घर हो, मित्रता हो या व्यावसाय का ही क्षेत्र क्योंकि न हो परतंत्रता को स्वीकार किए बिना स्वतंत्रता की स्थापना नहीं हो सकती, लेकिन स्वतंत्रता की भी एक रेखा होनी चाहिए अन्यथा यह रेखा उच्छलकन्ता बन जाती है। वाणी में भी परतंत्रता की आवश्यकता पड़ती है, स्वतंत्रता की भी एक सीमा है जिसे लांघना नहीं चाहिए। उन्होंने कहा कि घर, परिवार, पिता-पुत्र, पति-पत्नी, मित्र के बीच में परतंत्रता होती है और यह स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है लेकिन यह स्वतंत्रता मर्यादा में होनी चाहिए।
महाराज जी ने कहा कि शुक्रवार से प्रारंभ होने वाली कथा का प्रसंग सीताजी के चरित्रों का वर्णन है। सीताजी के चरित्र में तीन स्वरुप है उनमें से एक शब्द ब्रम्हामयी, दूसरे स्वरुप में सीरध्वज (जनक) और तीसरे स्वरुप में अव्यक्त स्वरुपा है जिन पर सातों दिन प्रवचन होगा। उन्होंने कहा कि रामचरित्र मानस में कहीं भी कटुवाणी का प्रयोग नहीं हुआ है और न ही अहंकार का समावेष है। अहंकार के कारण ही मन-मुटाव, लड़ाईयां होती है, जो कभी बंद नहीं हो सकती, यह अहंकार केवल मानव में ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों और जानवरों में भी होता है और जिसका परिणाम कभी अच्छा नहीं होता। रामचरित्र मानस में अहम की शून्यता है और जीवन संदेश देने वाले उपदेश है जिनको जीवन में धारण करने से मनुष्य का जीवन परिवर्तित हो जाता है। इसके विपरीत महाभारत में अहम और अहंकार की लड़ाई है और वाणी में भी संतुलन नहीं था जो युद्ध का कारण बना। भाईजी ने कहा कि सत्संग का मूल उद्देश्य ही जीवन में बदलाव लाना है, यदि 100 में से 40 लोगों ने भी अपनी गलतियां स्वीकार ली तो उनका जीवन सफल रही है। जो सत्संग में नहीं जाते ऐसे 100 में 80 प्रतिशत लोग अपने जीवन की गलतियों को नही सुधार पाते।