लक्ष्य लेकर कार्य करने वाला जीव कभी भटकता नहीं – मैथिलीशरण भाईजी
रायपुर। यदि लक्ष्य लेकर जीव अपने कार्य में लगे रहता है तो वह कहीं पर भी इधर-उधर भटकता नहीं है और आखिरकार अपने लक्ष्य तक पहुंच ही जाता है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए जीव जब अपने कार्य में पूरी तरह से रमा हुआ रहता है तो उसके विरुद्ध दुष्प्रचार भी काफी होता है और उसके बारे में लोग न जाने क्या-क्या बातें करते है और अफवाहें फैलाते है। वास्तव में जीव जब अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में मशगुल रहता है तो वह अपनी मर्यादाओं, अपने गुरु और माता-पिता को नहीं भूलता वह सब उसके केंद्र में होते है। यह प्रेम की अद्वितीयता है जिसमें जीव पूरी तरह से खो जाता है। जिस प्रकार से माँ अपने पुत्र के स्नेह और प्रेम में इस प्रकार डूबी हुई रहती है कि उसे केवल अपना पुत्र ही दिखाई देता है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह अपने पति, माता-पिता या अन्य सगे संबंधियों को भूल गई है, केंद्र में केवल उसके पुत्र का प्रेम मोह रहता है। महाराजा अग्रसेन इंटरनेशनल महाविद्यालय समता कालोनी में श्री रामकिंकर विचार मिशन के मैथिलीशरण भाईजी ने रामचरित्र मानस के गूढ़तम प्रसंगों में से एक मां श्री सीता जी के दिव्य स्वरूप अद्वैतरूपी शक्ति स्वरूपा के प्रसंग पर ये बातें श्रद्धालुजनों को बताई।
भाईजी ने कहा कि व्यवहारिक परंपराएं भूल जाने का मुख्य कारण यह होता है कि क्योंकि व्यवहार को महत्व देने वाले व्यक्ति ही उसको कुटीलमति मानते है और यह कहकर उसको कलंकित करते है, उसको प्रदूषित करते है कि इसने जानबूझ करके मेरे साथ यह व्यवहार किया, जबकि वह अपने भवराज्य में होता है। एक कागज पर नाम लिखवाने के लिए मैं पांच बार इसलिए कहता हूं क्योंकि जब मैं व्यासपीठ पर बैठ जाता हूं तो मुझे कुछ भी याद नहीं रहता है अपने बैठे सब मुझे श्रोता दिखाई देते है। लेकिन कथा जो है वह लौकिक और पौरौकिक दोनों को मिला करके कही जाती है। जो शिक्षाविद होते है, जो पढ़े-लिखे होते है ग्रंथों की जिनके पास बड़ी-बड़ी डिग्रियां होती है वे निश्चित रुप से इसमें क्रम भंग होने की बातें कहते है यह हो सकता है लेकिन जब भावेश में कथाओं का वर्णन किया जाता है तो वह पूरी तरह से लौकिक रहती है क्योंकि उस समय केंद्र में दृष्टांत का बीज छुपा हुआ रहता है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित्र मानस के माध्यम से यह बताया है कि वे राज्य दोष इसके माध्यम से बता सकें कि गोस्वामी जी इसमें लिखना तो नहीं भूल गए है। लिखना कुछ चाहिए और लिख दिया कुछ और। जब किसी कन्या का जन्म होता है तो उसका नाम पुत्री होता है, फिर उसका विवाह होता है फिर उसका नाम पत्नी पड़ जाता है, फिर जब उसको संतान उत्पन्न होती है तो वह माँ कहलाती है। लेकिन गोस्वामी तुलसीदास जी ने जब सीताजी की वंदना की जो उसमें क्रम भंग कर दिया और क्रम भंग जो है शिक्षाविदों की दृष्टि से दोष माना जा सकता है, लेकिन भव राज्य में जब व्यक्ति पहुंच जाता है तो दोष भी गुण के रुप में बदल जाता है।
भाईजी ने कहा कि जनक सूता- आप जनक जी की पुत्री है, फिर कहा जगत जननी जानकी -आप सारे संसार की माँ है। तो भगवान राम को भूल गए क्या? तो भगवान तुलसीदास जी ने कहा कि माँ उनसे संबंध आपका बाद में होगा पहले हम बच्चों का ध्यान रखिए। माँ की पिधान्ता, उसके स्मृति की पिधान्ता, स्त्री के प्रेम की पिधान्ता पति में नही होती है बच्चे में होती है। जो संसार पति-पत्नी के संबंध को प्रेम मानता है, पुत्र लौकिक व्यवस्था मानता है, प्रेम का वास्तविक स्वरुप तब दिखाई देता है जब माँ अपने पति की बात की आव्हेलना करके अपने बच्चे को गले से लगा लेती है। बच्चा अगर रो रहा है, पति कार्यालय जा रहा है उसका टिफिन देना है उसको बीच टेबल पर रख दिया जाएगा और उनको आज्ञा दे दी जाएगी आपका अपना टिफिन उठा लीजिएगा क्योंकि मैंने अपने रो रहे बच्चे को हृदय से लगाने जा रही हूं।
महाराज ने कहा कि माँ अपने नवजात बच्चे की भावना को भी बिना बोले समझ और पढ़ लेती है वहीं दूसरी ओर पति को अपने प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए पत्नी से बोलना ही पड़ता है मैं तुम्हें अपने प्राणों से भी ज्यादा प्यार करता हूं। जब आप किसी से यह कहते है कि प्राण से ज्यादा हम आपसे प्यार करते है तो आपको पता है आप जिसके लिए कह रहे है उससे प्यार नहीं कर रहे है आप प्राण से प्यार कर रहे है क्योंकि आपको मालूम है इनसे नहीं कहेंगे तो ये बुरा मान जाएंगी और प्राण को इनसे ज्यादा बता देगे तो प्राण हमारा इतना बड़ा है कि इनको कभी छोड़कर जाने वाला नहीं है। यह प्रेम का निगुण स्वरुप है जो प्राण के रुप में है। संसार का व्यक्ति लौकिक भाषा को सुनने का इतना आदि हो जाता है कि जिसको अपने हृदय में स्थान दिया है वो हृदय से निकल करके सामने अपने अहंकार के कारण लौकिक नाम की इच्छा रखता है।
शिष्य वो है जो गुरु के हृदय में निवास करता है और भक्त वो है जो भगवान के हृदय में निवास करता है। मित्र वो है जो अपने मित्र के हृदय में निवास करता है जो बड़ा सिद्ध होने की इच्छा रखता है लेकिन उसे छोटा सिद्ध कर देता है। जब आप किसी के लिए अपनी कुर्सी छोड़ देते है तो उस समय तत्कालिक तौर पर वह व्यक्ति बड़ा हो जाता है लेकिन सर्वकालिक रुप में बड़ा आदर करने वाला ही होता है।
भाईजी ने बताया कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने माँ सीता से कहा कि आप पहले माँ बन जाई इसके पीछे जो पूरे विश्व में सामने बैठे हुए है वह आपका लौकिक स्वरुप है। बूंद, समुद्र और लहर में कोई अंतर होता नहीं है। समुद्र में भी जल है, लेकिनसमुद्र की सीमाएं असीम होती है इसलिए उसे समुद्र कहा जाता है। समुद्र में जब ज्वांरभाठा आता है तो ऊंची-ऊंची लहरें उठती है और तट से टकराकर जब वह छिटकती है तो वह अनंत बूंदें बन जाती है, यही स्थिति जीव की है। जब जीव के अंदर समुद्र का अनंत समाहित हो गया तो फिर आपको और कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं है।