पूजा भगवान की करते हैं लेकिन दुर्भाग्य,चाहतें है जाने कोई और – मैथिलीशरण भाई जी
रायपुर। कान का अहंकार इतना बड़ा होता है कि कितना भी खिलाओ-पिलाओ पेट ही नहीं भरता और जब ज्यादा हो जाता है तो नतीजा ये होता है कि वह आपे से बाहर हो जाता है। रामचरित मानस सुमति की कथा है इसको सुनिए मत, कहीं पर भी बैठ जाइए तो भी सब जगह सुनाई देता है। जिसका आप पूजन कर रहे है वो तो जान रहा है कि हमने तुम्हारी पूजा की है, जब वो जान रहा है, भले कोई जाने या ना जाने और हमारा दुर्भाग्य क्या होता है वो जाने या ना जाने ये जान जाए बस..। हम आपको भगवान के सामने प्रमुख मानते है लेकिन आपने जनता के सामने प्रमुख रहने के लिए खरी खोटी सुनाकर यह सिद्ध कर दिया कि वह व्यक्ति कितना अहंकारी होगा। हमारा निर्मल मति हो ताकि हम उस रामायण के तत्व को समझ सकें।
मैक कॉलेज ऑडिटोरियम में सीता जी के प्रसंग पर चल रही श्रीराम कथा में मैथिलीशरण भाई जी ने बताया कि जो आर्शीवाद कृपा सब कुछ अपना अंग बना लिया है, आप उसके शब्दों को भी तो याद करिए की कितनी बार उन्होंने आपकी प्रशंसा की वह भूल गया और हमारी सृष्टि से कोई अनभिज्ञता हो गई तो उसे कष्ट होने लगा। इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति भगवान की प्रशंसा के लिए कार्य करें, संसारी व्यक्ति आपको देखे या न देखे लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि भगवान आपका साथ जरुर देंगे। जो प्रशंसा करने वाले लोग है वह आपका साथ नहीं देंगे। वह तभी तक दिखाई देते है जब तक आप में योग्यता है, जिस दिन आप बेक सीट में गए वह सब प्रतापभानु की तरह हो जायेंगे। इसलिए जो अजर -अमर होने की बात करता है वह राक्षस होता है। किसी भक्त ने भगवान से कभी यह नहीं मांगा कि मुझे दीर्घायु दे दीजिए और मेरी मृत्यु न हो और किसी राक्षस से यह ना होगा,यह हो ही नहीं सकता। 100 कलप का राज करने वाले एक कलप वाले से मांगेगा तो भगवान कहेगे 99 पहले मुझे तो दे दो। जो मुझे ही प्राप्त नहीं हुआ है तो जनता की स्थिति भी यही है कि जो भगवान के पास नहीं वह उसे मांगता है। हम चाहते है कि हमारा निर्मल मति हो ताकि हम उस रामायण के तत्व को समझ सकें।
भाई ने कहा कि गुरु, श्रोता और वक्ता तत्व सभी एक है लेकिन आपके गुरुजी नहीं हमारे गुरुजी भी कुछ-कुछ बतातें हैं हमें। व्यवहार के नाम पर यदि आप भगवान को भी मानेंगे तो ध्यान रखिएगा एक न एक दिन आप भगवान को छोड़ देंगे। भगवान के भी हृदय में रहा जाता है और भगवान के हृदय में भक्त रहते है। निर्मल मति अगर होगी तो आप दूसरे के कोमल मति में भी सुमति दिखाई देगी। जैसे कलर वाला व्यक्ति ब्लैक हो जाता है वैसे ब्लैक वाला व्यक्ति भी कलर ब्लैक हो जाता है। जैसे अंधे को सब हरा दिखाई देता है ऐस सुमति वाले व्यक्ति को भी सब जगह सुमति ही दिखाई देती है। कुछ लोग अंधविश्वास की आलोचना करते है, अंधविश्वास की आलोचना करना बिल्कुल ठीक है लेकिन पहले अंधविश्वास की व्याख्या को तो समझ लीजिए। आप भगवान पर जो चढ़ाते है वह अपनी प्रशंसा के लिए उसका आवश्यकता भगवान को कभी नहीं होती है। जब सुमति होती है किसी व्यक्ति की तो उसमें कुमति भी सुमति दिखाई देती है।
महाराज भाईजी ने बतााय कि जब संत में भी दोष दिखाई देने लगे और जो आपको हृदय से प्यार करता है उसमें भी दोष दिखाई देने लगे तो समझ लीजिए सीताजी के चरणों का दर्शन नहीं हुआ है। सीताजी के चरणों का दर्शन अगर राहू कर लेता तो आँख से आँख मिलाने की बात नहीं कहता। जिन- जिन लोगों ने श्री सीताजी के चरणों की प्राप्ति कर ली उन्होंने उनसे आँख से आँख नहीं मिलाई। श्री सीताजी ने उस पर अपनी कृपा दृष्टि उसको दी, जब सीताजी कृपा दृष्टि देती है तो कैसी दृष्टि है सीताजी की। जब 14 वर्ष का वनवास दिया जाता है, उस 14 वर्ष के वनवास को देते समय भगवान राम ने सीताजी की व्याकुलता को देख लिया और हाथ पकड़ कर समझाया। यद्यपि माताओं के सामने उनको सीताजी को समझाने में संकोच हो रहा था, क्योकि जिस भाषा का प्रयोग भगवान राम करते है वो माताओं के सामने बोलने में संकोच था। लेकिन सीताजी के नेत्र भगवान से सबकुछ कह दिया था। सीता जी भगवान के साथ जाना चाहती थी लेकिन भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम है, तो वह अमर्यादा कैसे करेगे। मर्यादा पुरुषोत्तम जो लोग भगवान को मानते है वो भगवान की उस मर्यादा को जरुर समझ लें कि भगवान राम ने कभी गांठ नहीं बाधी। अपने किसी संकल्प के लिए गांठ मत बांधिएगा, गांठ बाधेंगे तो मुक्त नहीं हो पाएंगे।
कोई भी प्रेमी अपने प्रेमासस से कोई बात कहता है तो मर्यादा के साथ प्रेम का अनुपान जरुर देता है। अनुपान का मतलब होता है जो वस्तु लाई जा रही है वह कल भी है और जिसमें मिलाकर करके खिलाई जा रही है वह मीठी है उसको अनुपान कहते है। पहले वैद्य लोग कडवी दवा जब देते थे तो पर्ची में लिख देते थे इसको शहद से लेना है, इसको मलाई से लेना है, या कोई ऐसी…। जब कठोर बात कही जाती है तो प्रेम के अंदर रुपान में मिलाकर कही जाती है। जब प्रेम के अनुपान में कठोर बात कही जाती है तो प्रेम और कठोरता का उद्देश्य प्रेम करना होता है। प्रेम की बात करने में भी आपका कल्याण और कठोरता की बात करने में भी आपका कल्याण ही है क्योंकि वैद्य जो अनुपान देता है कि कड़वी बात सीधे नहीं जाएगी।